जानिये क्या है कृत्रिम बारिश

कृत्रिम बारिश के जरिये बादलों की भौतिक अवस्था में आर्टिफशल तरीके बदलाव लाया जाता है जो इसे बारिश के अनुकूल बनाता है। यह प्रक्रिया क्लाउड सीडिंग कहलाती है। बादल पानी के बहुत छोटे -छोटे कणों से बने होते हैं। जो कम भार की वजह से खुद ही पानी की शक्ल में जमीन पर बरसने में पूरी तरह सक्षम होते हैं। कभी-कभी किसी खास परिस्थितियों में जब ये कण इकट्ठे हो जाते हैं, तब इनका आकार और भार अच्छा खासा बढ़ जाता है। तब ये ग्रेविटी के कारण धरती पर बारिश के रूप में गिरने लगते हैं।

कैसे होती है कृत्रिम बारिश?

कृत्रिम बारिश तकनीक के तीन चरण होते हैं।

स्टेप 1: पहले चरण में रसायनों का इस्तेमाल करके उस इलाके के ऊपर बहने वाली हवा को ऊपर की ओर भेजा जाता है, जिससे वे बारिश के बादल बना सकें। इस प्रक्रिया में कैल्शियम क्लोराइड, कैल्शियम कार्बाइड, कैल्शियम ऑक्साइड, नमक तथा यूरिया के यौगिक और यूरिया, अमोनियम नाइट्रेट के यौगिक का इस्तेमाल किया जाता है। ये यौगिक हवा से जलवाष्प को सोख लेते हैं और दवाब बनाने की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं।

स्टेप 2: दूसरे चरण में बादलों के द्रव्यमान को नमक, यूरिया, अमोनियम नाइट्रेट, सूखा बर्फ और कैल्शियम क्लोराइड का प्रयोग करके बढ़ाया जाता है।

स्टेप 3: तीसरे चरण में सिल्वर आयोडाइड और शुष्क बर्फ जैसे ठंडा करने वाले रसायनों की आसमान में छाएबादलों में बमबारी की जाती है। ऐसा करने से बादल में छुपे पानी के कण बिखरकर बारिश के रूप में जमीन पर गिरने लगते हैं।

artificial rain diagram

भारत में कृत्रिम बारिश का इतिहास

भारत के कुछ राज्य अपने स्तर पर पिछले 35 वर्षो से प्रोजेक्ट के रूप में कृत्रिम बारिश का प्रयोग कर रहे हैं।

तमिलनाडु सरकार ने 1983 में सूखाग्रस्त इलाकों में पहली बार इसका प्रयोग किया था। 2003 और 2004 में कर्नाटक सरकार ने भी इसे अपनाया। महाराष्ट्र में 2009 में अमेरिकी कंपनी के सहयोग से इसका आगाज हुआ। कृत्रिम वर्षा के क्षेत्र में आंध्र आगे है। यहां 2008 से 12 जिलों में बड़े पैमाने पर यह कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इस प्रदेश में कृत्रिम वर्षा के लिए सिल्वर आयोडाइड के स्थान पर कैल्शियम क्लोराइड का प्रयोग किया जा रहा है। आंध्र प्रदेश का अनुभव बताता है कि कृत्रिम बारिश पर रोज़ाना करीब 18 लाख रु पए का खर्च आता है।

कैसे होती है क्लाउड सीडिंग?

हवा के जरिए क्लाउड-सीडिंग करने के लिए आम तौर पर विमान की मदद ली जाती है। विमान में सिल्वर आयोडाइड के दो बर्नर या जनरेटर लगे होते हैं, जिनमें सिल्वर आयोडाइड का घोल हाई प्रेशर पर भरा होता है। तय इलाके में विमान हवा की उल्टी दिशा में चलाया जाता है। सही बादल से सामना होते ही बर्नर चालू कर दिये जाते हैं। उड़ान का फैसला क्लाउड-सीडिंग अधिकारी मौसम के आंकड़ों के आधार पर करते हैं। शुष्क बर्फ, पानी को जीरो डिग्री सेल्सियस तक ठंडा कर देती है, जिससे हवा में मौजूद पानी के कण जम जाते हैं। कण इस तरह से बनते हैं, जैसे वे कुदरती बर्फ हों। इसके लिए बैलून, विस्फोटक रॉकेट का भी प्रयोग किया जाता है।

क्या है कृत्रिम बारिश की चुनौतियां?

क्लाउड सीडिंग में यह ध्यान रखना पड़ता है कि किस तरह का और कितनी मात्रा में केमिलकल इस्तेमाल होंगे। मौसम का मिजाज कृत्रिम बारिश के अनुकूल है या नहीं। जहां बारिश करानी है, वहां के हालात कैसे हैं। बादल के किस्म, हवा की गति और दिशा क्या है। जहां रसायन फैलाना है, वहां का वातावरण कैसा है। इसके लिए कंप्यूटर और राडार के प्रयोग से मौसम के मिजाज, बादल बनने की प्रक्रिया और बारिश के लिए जिम्मेदार घटकों पर हर पल नजर रखनी होती है।